Indian कंपनियाँ पुराने style के Trucks क्यों बेचती हैं? Tata trucks पुराने style में क्यों बेचती हैं? India के Trucks पुराने style के क्यों है?| भारतीय कंपनियाँ पुराने style के Trucks क्यों बेचती हैं?
भारतीय कंपनियाँ पुराने style के Trucks क्यों बेचती हैं?

ये एक 1990 का टा ट्रक है और ये आज के जमाने का एक नया टा ट्रक है। दोनों की शक्लों में ज्यादा डिफरेंस आपको देखने नहीं मिलेगा। हालांकि अंदरूनी कुछ चेंजेज हैं, लेकिन ऑलमोस्ट जो मैनिट एंड फीचर्स एंड मॉडल दिखने में है वो सेम ही है। ये कुछ और मॉडल्स हैं 1960 70 80 के जमाने के भी कुछ ऐसे ट्रक्स हैं जो आज के जमाने के ट्रक से ऑलमोस्ट सिमिलर दिखते हैं। ऐसा लगता है कि भारत की जो ट्रकिंग इंडस्ट्री है वो समय के साथ में जम गई है। अपने ट्रक मॉडल्स के साथ में लेकिन ये इतना ही ज्यादा इजली आंसरेबल क्वेश्चन नहीं है।
कई लोग यहां पर बहुत इ आंसर दे सकते हैं, लेकिन हमें देश की कॉम्प्लिकेटेड जो लॉजिस्टिक्स इंडस्ट्री है उसको समझना पड़ेगा। यह जानने के लिए कि क्यों भारत देश के अंदर ट्रक्स पुराने नजर आते हैं और मॉडर्न नहीं। तो शुरू करते हैं दोस्तों। लॉजिस्टिक्स इंडस्ट्री यानी सामान और सर्विसेस को एक दूसरे जगहों के बीच में ट्रांसपोर्ट कराने की इंडस्ट्री। अगर हम मोटा-मोटा तौर पे कहें तो इसमें सब आता है: एविएशन, ट्रेंस कंटेनर, शिप्स, लेकिन ट्रक्स सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
लास्ट माइल कनेक्टिविटी के लिए भारत देश के अंदर ये काफी महंगे हैं। सुनने में शायद ये अजीब लगे, लेकिन किसी भी प्रोडक्ट के बारे में अगर हम बात करें तो उसकी ओवरऑल कीमत के अंदर एक इंपॉर्टेंट कीमत होती है। कि उसको फाइनल कंज्यूमर तक पहुंचाने के लिए हम कितना खर्च कर रहे हैं। और भारत के अंदर यह कॉस्ट कम से कम 10 से 14 पर के बीच में आती है। और कुछ सस्ते प्रोडक्ट्स के लिए ये कॉस्ट जो है वो प्रोडक्ट के आधी कीमत तक बढ़ जाती है। जबकि दुनिया के स्टैंडर्ड्स के हिसाब से ये कीमत 7 से 9 पर के बीच में ही रहनी चाहिए। और इसके वजह से देश में ट्रांसपोर्टेशन महंगा है। दुनिया के कंपैरिजन में और महंगाई जब किसी भी इंडस्ट्री में बढ़ती है तो वहां पे कॉस्ट कटिंग होना जरूरी है।
एक प्राइमरी फैक्टर तो बन ही जाता है ट्रक्स के पुराने होने के पीछे। लेकिन इसके अंदर लॉन्ग टर्म चीजें क्या निभा रही है भूमिका अपनी वो समझते हैं। लॉजिस्टिक्स इंडस्ट्री को ही अभी भी हम समझ रहे हैं। ट्रक्स के ऊपर हम आएंगे और फैक्ट्रीज, टाटा, मांदर, सब पे हम आएंगे। अब देखो दोस्तों, यूएसए के अंदर एक ट्रकर जो है ना वो दिन में तकरीबन 800 किमी का सफर तय करता है और वो भी एक शिफ्ट 8 घंटे की। जो रेगुलरली लीगली प्रॉपर्ली चेक्ड होती है। उसके हिसाब से लेकिन भारत के अंदर ट्रक वाला आदमी 12 घंटे भी ट्रक अगर चला ले तो 250 से 300 किमी ही चला पाता है।
हाईवेज वगैरह हो तो ही इसके अंदर कुछ ऐसे कॉस्ट भी आते हैं जो काफी ज्यादा अनएक्सपेक्टेड होते हैं। रोड्स खराब होने की वजह से ट्रक्स का मेंटेनेंस ज्यादा है। यहां पर फ्यूल कॉस्ट हमारे यहां पर कई जगहों पे काफी ज्यादा है और वेरिएबल है। टोल्स हैं कई जगह पे, चाय-पानी, चाय पत्ती भी देनी पड़ती है। और कई सारे स्टेट बॉर्डर्स के ऊपर हमें नया-नया रोड ट्रैक्स देना पड़ता है। इसके कारण जो ओवरऑल लॉजिस्टिक्स कॉस्ट है वो और एक्सपेंसिव हो जाती है। इसके अलावा एक बहुत बड़ा फैक्टर जो भारत के अंदर प्राइसिंग के लिए मैटर करता है वो है ट्रक के ऊपर मिलने वाले लोंस। दोस्तों, ऑटोमोटिव लोंस अगर हम लेते हैं हम कार वगैरह खरीदते, लोन लेते हैं तो हमें देखने मिलता है 9 पर के आसपास या उसके ऊपर का लोन हमें देखने मिलता है।
भारत में जो ट्रक्स हैं अगर आप ईएमआई पे खरीदते हो नया तो आपको 9.9 से से लेकर 17 पर तक का इंटरेस्ट देखने मिल सकता है। डिपेंडिंग ऑन सिबल स्कोर और वगैरह वगैरह चीजें। लेकिन यूरोप के अंदर, अमेरिका के अंदर ये कॉस्ट जो है वो 5 से 6 पर की है। अगर आपने आठवीं, नवीं, 10वीं में थोड़ा मैथ्स ढंग से पढ़ा होगा या आप कॉमर्स स्टूडेंट हो या नहीं भी हो लेकिन आपकी मैथ्स अगर अच्छी है तो आप समझते हो ये जो छोटे-मोटे हमें अमाउंट दिख रहे होंगे 2-3 पर के अंदर। ये एक लोन के लिए जब लॉन्ग टर्म लग जाते हैं तो जमीन आसमान का डिफरेंस बना देते हैं। ईएमआई कॉस्ट के अंदर और ओवरऑल लोन के हिसाब से हम कितना इंटरेस्ट पे कर रहे हैं। उसमें 1 पर कॉस्ट भी बहुत ज्यादा डिफरेंस क्रिएट कराता है।
यहां पे तो कुछ-कुछ केसेस में डबल है। और इसीलिए हमारे देश के अंदर जो लॉजिस्टिक्स प्लेयर है उनको खर्चों का ध्यान ज्यादा रखना पड़ता है। और जो ट्रक परचेस है वो एक सिंगल टाइम सिंगल बिगेस्ट कॉस्ट होता है ट्रांसपोर्टेशन इंडस्ट्री के अंदर। और इसीलिए हमारे ट्रांसपोर्टर्स बहुत ही ज्यादा बड़ा अमाउंट इन्वेस्ट नहीं कर सकते ट्रक्स खरीदने में। अगर वो ट्रक खरीदने में ही बड़ा पैसा लगा देंगे तो उनको कीमतें बढ़ानी पड़ेगी उसको रिकवर करने के लिए। और अगर वो कीमतें बढ़ा दे तो लॉजिस्टिक्स इंडस्ट्री और इनएफिशिएंट बन जाएगी। जितनी इनएफिशिएंट है उससे और साथ-साथ जो कस्टमर्स हैं उनके ऊपर ये प्रभाव पड़ेगा। और इसलिए कोशिश होती है लॉजिस्टिक्स इंडस्ट्री की कॉस्ट को कम से कम रखें। अच्छे से अच्छे प्राइसेस भी वो दे जिसमें व कमा भी सके। और फाइनली हम भी एज कंज्यूमर्स यही चाहेंगे कि हमारे कॉस्ट ऑफ प्रोडक्ट्स ना बढ़े।
क्योंकि ट्रक्स अच्छे हैं और ऐसा नहीं है कि हमारे कंपनीज ने कभी भी मॉडर्न ट्रक्स बनाने का प्रयास नहीं किया। अगर यह कॉस्ट बढ़ जाए तो ट्रक की महंगाई भी बढ़ेगी। और अकॉर्डिंग जो कंपनीज खरीद रही हैं ट्रक्स वो नहीं खरीदेगी। इन महंगे ट्रक्स को क्योंकि उनको वो पवड़ा नहीं। सिंपल भाषा में अगर कहे तो एट द सेम टाइम जो रिसर्च एंड डेवलपमेंट होती है हमारे देश के अंदर ट्रकिंग कंपनीज में या ट्रक बनाने वाली कंपनीज के अंदर तो वो मेजर्ली फ्यूल कंसंट के लिए होती है कि कम से कम फ्यूल पीए ट्रक। लेकिन और दूसरी जो थोड़ी बहुत रिसर्च एंड डेवलपमेंट रिसेंट में हुई है। वो है एमिशन स्टैंडर्ड्स को मीट करने के लिए लेकिन ट्रक का जो एक्चुअली सेफ्टी है जो बॉडी है जो स्ट्र है उसके ऊपर काम नहीं होता बहुत अजीब बात है ना हम 2024 के अंदर हैं।
लेकिन फिर भी हमारे देश के घाटों के अंदर जब ट्रक्स चलते हैं तो उनको 510 की स्पीड पे चलना पड़ता है। ब्रेक फेल्स हो जाते हैं, ब्रेक पैड गर्म हो जाते हैं, तो रुक के करना पड़ता है। 24 में ये दिक्कतें नहीं आनी चाहिए। लेकिन इसके अंदर रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर ढंग से पैसा नहीं गया है। और अगर आंसर्स हैं भी तो वो महंगाई इतनी कर देंगे ट्रक्स को कि हमारे लॉजिस्टिक्स प्लेयर्स उनको नहीं खरीदेंगे। और यह मेन कारण अगर मार्केट नहीं है तो प्रोवाइडर्स क्यों उस मार्केट को जबरदस्ती किसी चीज से कटर करेंगे जो उस मार्केट के लिए बनी नहीं है। सेकंड इशू है हमारे यहां पे आने वाला ट्रक बॉडी कल्चर अब हमारे देश के अंदर आप जानते हो कि ट्रक्स जो है वो चैसेस के रूप में चलती हैं, कई बार हाईवेज के रूप में।
आपने उनको देखा होगा प्लांट्स के आसपास। और फिर जो ट्रांसपोर्ट कंपनी वाले हैं, वो ट्रक बॉडी बिल्डर्स के पास में इनको ले जाते हैं और अपनी रिक्वायरमेंट्स के हिसाब से ट्रक्स को बना लेते हैं, चाहे फिर वो डाला बॉडी ट्रक हो, कंटेनर ट्रक हो या कई दूसरे एप्लीकेशंस के हिसाब से। ट्रक के अंदर का जो इंटीरियर होता है, ज पे ड्राइवर और साथ में उसका खलासी होगा, वो भी अकॉर्डिंग हर नीड के हिसाब से बनता है। ना कि मास प्रोडक्शन पे। और हमारे यहां पर जो जो ट्रकिंग कल्चर है, वो कहीं ना कहीं यूएस एंड यूरोपियन कंट्री से अलग है। वहां पे भी लोग ट्रक में रहते हैं, लेकिन हमारे यहां पर जो लोग ट्रक में रहते हैं, वो बहुत ही ज्यादा लंबे समय तक रहते हैं, महीनों महीनों।
यहां पे ट्रक्स चलाने का समय भी ज्यादा होता है। जो खलासी होता है, वो जनरली आपको यूएस के अंदर देखने को नहीं मिलेगा। अगर है भी तो वो डबल ड्राइवर के तौर पे काम करते हैं और उनको लीगली वैसे रजिस्ट्रेशन भी करना पड़ता है। हमारे यहां पर ट्रक्स के अंदर ओपन गैस के साथ में खाना बनाने की एक काइंड ऑफ नीड है। क्योंकि हमारे यहां पर ट्रक स्टॉप्स जो हैं, वो इतनी इजली अवेलेबल नहीं होते। ये अवेलेबल होते हैं, तो अफोर्डेबल भी कभी कभी नहीं होते। कई ऐसे फैक्टर्स हैं। अगर आप आर राजेश लॉगस चैनल को देखते हो, तो आपको पता होगा कि ट्रकिंग लाइफ के अंदर क्या डिफिकल्टीज आती हैं।
इसीलिए किसी भी ट्रक के अंदर ये जरूरी होता है कि जो रिक्वायरमेंट्स उस पर्टिकुलर ड्राइविंग टीम की है, चाहे वो दो लोग हो या तीन लोग, उनके हिसाब से ही ट्रक बने अगर कंपनी के अंदर से सब कुछ बन के आने लग गया तो जरूरी नहीं है कि वो हर रीजन में हर क्लाइमेट में हर तरीके की रूट पे चलाने वाले इंसान को अच्छा लगे। और इसलिए ट्रक के अंदर पर्सनली जो चाहिए वैसी बॉडी बनाना ही हमारे देश के अंदर इंपॉर्टेंट है। और ट्रक जो कंपनी है वो फिर क्या ही करेगी रिसर्च एंड डेवलपमेंट करके महंगा ट्रक बेच के जो दिखने में अच्छा हो बाहर से लेकिन अंदर जो ड्राइवर है उसके हिसाब से चीजें नहीं बनी हो।
इसका एक सिंपल आपको उदाहरण दूं कभी भी देखना जो ट्रक्स जो है ना वो शिफ्ट्स में चलते हैं जहां पर ड्राइवर रहता नहीं है। ट्रक के अंदर वो आपको ज्यादा मॉडर्न देखने मिलेंगे जो माइंस के अंदर ट्रक्स चलती है। वो जो रीती सीमेंट जैसी चीजें पहुंचाती है विद इन द सिटी। वो ट्रक्स ऐसे ट्रक्स जो छोटे-मोटे डिस्टेंस पे ट्रेवल करती है जहां पे ड्राइवर काम करते हैं। शिफ्ट्स में बाद में आके सो जाते हैं। ऐसे ट्रक्स के अंदर आपको कंपनी से बनी हुई बॉडी मिलेगी। कंपनी से बनाए हुए सीड्स देखने मिलल जाएंगे। और पूरी तरीके से एक मैन्युफैक्चर्ड प्रोडक्ट देखने मिलेगा। लेकिन जो लॉन्ग डिस्टेंस पे चलने वाली गाड़ी है।
जो हजारों किलोमीटर चलती है महीने में। कहीं दिन वहां पे ऐसी चीजें नहीं चलेगी। तो इसका जवाब क्या है क्या ये कभी चेंज नहीं होगा क्या हमारे देश के अंदर 1980 के टेक्नोलॉजी वाले ट्रक्स से अभी भी चलते रहेंगे। तो देखो ये चेंज होगा। लेकिन बहुत बड़े लेवल पे नहीं। ट्रक बॉडी के अंदर आज हमें बहुत बेसिक लेवल का कंस्ट्रक्शन देखने मिलता है। लेकिन प्रोबेबली ट्रक बॉडी कल्चर तो भारत के अंदर रहेगा। लेकिन जो एमेनिटीज मिलती है उसके अंदर वो हमें मॉडर्न बनते हुए नजर आएगी। इनफैक्ट आज भी अगर आप सिर्फ चै सज खरीदते हो तो एयर कंडीशनिंग फ्रिज सब लगवा सकते हो। और कुछ ट्रकर्स लगाते भी हैं जहां पर भी प्रॉफिटेबल है या ट्रक जो है अच्छे से चल रहा है। वहां पर लगवा भी लोग हैं।
धीरे-धीरे ये बढ़ेगा। एमेनिटीज और उनकी क्वालिटी स्टैंडर्ड्स बढ़ेंगे। सेकंड मेजर चेंज आएगा जब हमारे देश की लॉजिस्टिक्स कॉस्ट चेंज होगी। देश में जो एक्सप्रेसवेज बन रहे हैं वगैरह। ये इस चीज को मेजरली अफेक्ट करेंगे। कसे करेंटली। दिल्ली मुंबई के बीच में आदमी को जो है 24 से 36 घंटे लग जाते हैं ट्रेवल करने में। दिल्ली मुंबई एक्सप्रेसवे बन जाएगा। वो 12 घंटे में कर सकता है एक शिफ्ट में। यानी कि अगर वो महीने में 14 या 15 बार आ जा सकता है। मुंबई दिल्ली। वो ट्रक टीम या ट्रक ड्राइवर जो है वो महीने में रोज 30 बार आ जा सकेगा। सबके लिए प्रॉफिट यहां पे बढ़ रहा है।
इस प्रॉफिट का एक हिस्सा जो है वो अपने कंफर्ट के लिए वगैरह इस्तेमाल कर सकता है। क्योंकि प्रॉफिट्स उसके बढ़ गए हैं। साथ-साथ। तीसरा जो एक मेजर चेंज लाने के लिए जरूरी चीज होगी। वो हो ग नियम कानून जैसे गवर्नमेंट ने एमिशन स्टैंडर्ड्स बना दिए तो ट्रक कंपनीज को मजबूरी में ही क्यों ना हो अपने इंजंस को मेजरली मॉडिफाई करना पड़ा। आज ट्रक्स में यूरिया पड़ता है ताकि एमिशन स्टैंडर्ड्स मीट हो सके। कई दूसरी चीजें है इंजंस को मॉडिफाई किया गया ना। फाइनली क्योंकि लॉस चेंज हुए सिमिलरली। एयर कंडीशनिंग के ऊपर। नितिन गडकरी जी ने रिसेंटली बात की थी सेफ्टी के। ऊपर अगर नियम बनते हैं तो अकॉर्डिंग इंडस्ट्री को भी चेंज होना पड़ेगा। टा mahindra-ecat वयो में।